गो महिमा
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गोवंश आज
व्यावहारिक उपयोगिताकी दृष्टि से भौतिक तुलापर तौला जा रहा है; किन्तु
स्मरण रहे कि आजका भौतिक विज्ञान गोवंशकी उस सुक्ष्मातिसुक्ष्म परमोत्कृष्ट
उपयोगिता का पता ही नहीं लगा सकता, जिसे भारतीय शास्त्रकारों ने अपनी
दिव्यदृष्टिसे प्रत्यक्ष कर लिया था। गोवंश की धार्मिक महानता उसमें जिन
सूक्ष्मातिसूक्ष्म कारण रूप तत्त्वों की प्रखरताके कारण है, उनकी खोज और
जानकारीके लिये आधुनिक वैज्ञानिकों के भौतिक यन्त्र सदैव स्थूल ही रहेंगे।
यही कारण है कि बीसवीं सदीका प्रौढ़ विज्ञानवेत्ता भी गोमाता के रोम-रोम
में देवताओं के निवास का रहस्य और प्रातः गोदर्शन, गोपूजन, गोसेवा आदिका
वास्तविक तथ्य समझाने में असफल रहता है। गोधनका धार्मिक महत्व भाव-जगत से
सम्बन्ध रखता है और वह या तो ऋतम्भरा प्रज्ञा द्वारा अनुभवगम्य है अथवा
शास्त्रप्रमाणद्वारा जाना जा सकता है, भौतिक यन्त्रों द्वारा नहीं।
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जिन्होंने जगत के
हित की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले रखी है, उन देशों के शासकों को इन सब बातों
पर खूब विचार करके तुरंत गोहिंसा-निवारण और गो-संरक्षण के कार्यं में लग
जाना चाहिये। और सर्वसाधारण को भी सावधानी के साथ गौओं की रक्षा करनी
चाहिये।
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अपनी माता से भी
गोमाता श्रेष्ठ है क्योंकि अपनी माता ज्यादा से ज्यादा दो साल तक बच्चे को
दूध पिलाती है। गोमाता तो आजीवन दूध देकर पालती है। अतः गोमाता की महिमा
अपार है।
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गोमाता के
प्रत्यंग में देव रहते हैं। इसलिये श्रुति-स्मृति-पुराण कहते हैं कि
मनुष्यों के उद्धार के लिये आयी हुई यह प्रत्यक्ष देवता है। अतः एव केवल
व्यवहार-दृष्टि से नहीं, धार्मिक एवं पारमार्थिक दृष्टि से भी प्रत्येक
घरमें गाय अवश्य रखनी ही चाहिये, उसका पालन-अर्चन होना ही चाहिये।
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‘वन’ पर्वत, नदी
और तीर्थों पर किसी का स्वामित्व नहीं होता; सबके लिये ये खुले रहते हैं।
कोई उन्हें अपनी ही स्वत्व मानकर इनका परिग्रह न कर बैठे।’
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यदि इस नीति के
अनुसार वन, पर्वत, नदी और तीर्थ गौओंके लिये खुले रखे जायँ तो करोड़ों गौओं
का पालन-पोषण हो सकता है और उससे भूमि की शस्योत्पादन-शक्ति भी कई गुना
बढ़ सकती है।
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आज गोरक्षा
धार्मिक, आर्थिक, व्यावहारिक - प्रत्येक दृष्टि से परमावश्यक है। शास्त्रों
में गो जाति की महिमा, गोसेवा का माहात्म्य विस्तृत रूप से वर्णित है;
उसका संग्रह आवश्यक है गोग्रास यदि प्रत्येक कुटुम्ब अपने शास्त्रानुसार
भोजन निर्माण ओर बलि वैश्वदेव तथा गोग्रास निकालने का नियम बना लें,
गोदर्शन, गोपूजा प्रारम्भ कर दें, तो बहुत अंशों में गोरक्षा का प्रश्न
समाप्त हो सकता है।
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भारतीयों ने जबसे
गो-सेवा की उपेक्षा की , तभी से भारत की दुर्दशा का प्रारम्भ हुआ है। परम
कृपालु भगवान श्रीगोपालकृष्ण भारतीयों के हृदय में सद्बुद्धि प्रेरित करें।
यह निश्चित है कि यदि सभी भारतीय गो-रक्षा करने के लिये कटिबद्ध हो जायँ,
तो भारत पूर्ववत सुखी हो सकता है।
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जब तक हम और कुछ नहीं कर सकते, तब तक हिंदुत्वके नाते इतना तो करें ही-
1. किसी प्रकार भी सामथ्र्य होने पर जितनी रख सकें, गौएँ रक्खें। चाहे घोड़े-मोटर कम कर दें।
2. गोभक्षकों से खान-पान, रोटी-बेटी आदि का किसी भी दषा में सम्बन्ध न करें।
3. किसी भी मूल्य पर किसी भी दशा में गोवंश को कसाईयों के हाथों न बेचें।
4. गो-ग्रास जो घर-घर अब तक निकलता था, उसे फिर से निकलवाना आरम्भ करें।
5. गौओं को अपने परिजन की भाँति समझ कर उनकी सेवा करें। गौ के आशीर्वाद से सभी समृद्धियाँ स्वतः प्राप्त हो सकती है।
6. जहाँ तक हो, ताजा शुद्ध गो-घृत, गो-दुग्ध का व्यवहार करें ओर उसकी वृद्धि के लिये प्रयत्न करें।
7.गोवध बंद कराने की जो प्रतिज्ञा करें, उन्हें ही शासन कार्योमें निर्वाचित करें।
8. गोरक्षा में
प्राचीन पद्धति का ही अनुसरण किया जाय, कृत्रिम उपायों से दुग्ध वृद्धि,
सम्पूर्ण दुग्ध को चूस लेना आदि व्यवहारों को न बरतें।
9. बैलों की
वृद्धि के लिये उन्हें आरम्भ में यथेश्ट दूध दें और उनसे आवश्यकता से अधिक
काम न लें। वृद्ध बैलों की स्वयं सेवा न कर सकंे तो उन्हें कसाइयों को न
दें, उनकी रक्षा के लिये बैल गो-रक्षण-संघ बनावें।
10. गोशालाओं की
दशा सुधारें। यही सच्चा हिंदुत्व है। गोरक्षा और हिदुत्व में अन्योन्याश्रय
सम्बन्ध हैं। गोरक्षा के बिना हिंदुत्व नहीं और हिंदुत्वके बिना जैसी हम
चाहते हैं, वैसी गोरक्षा हो नहीं सकती।
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देश को इस
राष्ट्रघात और धर्मघात से बचाने के लिये निमिश मात्र भी विलम्ब न करके
तत्काल गो-सेवा में लग जाना चाहिये। आज केवल गोपूजा और गो-प्रदिक्षणा से ही
गोसेवा नहीं हो सकती। प्रत्येक आर्य स्त्री-पुरूष जब तक गो-दुग्ध और
गो-दुग्धान्न्ा का सेवन करने की प्रतिज्ञा न करेंगे, तब तक गो-सेवा पूरी
नहीं होगी।
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हिंदुस्थानी
सभ्यता का नाम ही ‘‘ गोसेवा’’ है। लेकिन आज गाय की हालत हिंदुस्थान में उन
देशों से कहीं अधिक खराब है, जिन्होंने गोसेवा का नाम नहीं लिया था। हमने
नाम तो लिया, पर काम नहीं किया। जो हुआ, सो हुआ। लेकिन अब तो चेतें।
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इस युग में भी सब
तरह के वैज्ञानिक आविष्कारों के होने पर भी हमारे देश में सभी
धर्मावलम्बियों के सामाजिक और आर्थिक जीवन का प्रधान आधार गोवंश ही है। ऐसी
अवस्था में सभी भारतवासियों को गोवंश ह्रास और अवनति को रोकने और उसकी
वृद्धि और उन्न्ाति के उपायों को कार्यान्वित करने में सहयोग देना चाहिये।
हमारी तो प्रत्येक धार्मिक और आर्थिक, इहलौकिक और पारलौकिक उद्देश्य को
सिद्धि के लिये यह नितान्त परमावश्यक है।
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गोरक्षा हिंदू
धर्म का एक प्रधान अंग माना गया हैं प्रायः प्रत्येक हिंदू गौ को माता कहकर
पुकारता है और माता के समान ही उसका आदर करता है। जिस प्रकार कोई भी पुत्र
अपनी माता के प्रति किये गये अत्याचार को सहन नहीं करेगा, उसी प्रकार एक
आस्तिक और सच्चा हिंदू गोमाता के प्रति निर्दयता के व्यवहार को नहीं सहेगा।
गोहिंसा की तो वह कल्पना भी नहीं कर सकता। गौ के प्राण बचाने के लिये वह
अपने प्राणों की आहुति दे देगा, किन्तु उसका बाल भी बाँका न होने देगा।
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सरकार तथा
सार्वजनिक संस्थाओं को चाहिये कि वे वर्तमान या भावी गोशालाओं के उपयोग के
लिये निःशुल्क गोचर भूमि प्रदान करें। गोवंश की रक्षा में देश की रक्षा
समायी हुई है। जैसे कोई अपनी माता पर किये गये अत्याचार को सहन नहीं करेगा,
उसी प्रकार गोमाता की हत्या को सहन नहीं करेगा।
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राज्य बाजार में
बिकने आने वाली तमाम गायों को अधिक-से-अधिक कीमत देकर खरीद लें। सरकार
विस्तृत गोचर भूमि की व्यवस्था करंे तथा गोरक्षा का शास्त्र लोगों को
समझाने के लिये श्रेष्ठ विशेषज्ञों की सेवा प्राप्त करे। गोवंश की क्षति यह
ऐसी हानि है कि इसको कोई व्यक्ति या संस्था नहीं रोक सकती। यह बात मुख्यतः
सरकार के ही हाथ की है। इसमें लोगों को गो पालना, दुग्धालय चलाना और साँड़
चुनने की शिक्षा देनी जरूरी है। मेरे नम्र विचार के अनुसार सारी प्रजाके
साथ दृढ़ता से और ज्ञानपूर्वक काम करते हुए गोधन की रक्षा करना राज्य का
कर्तव्य है। राज्य के बालकों और लोगों को नीरोग और सात्विक दूध मिल सके-
ऐसी व्यवस्था करना राज्य के प्रथम कर्तव्यों में से एक कर्तव्य है। गोवंश
की रक्षा ईश्वर की सारी मूक सृष्टि की रक्षा करना है। भारत की सुख-समृद्धि
गौ के साथ जुड़ी हुई है।
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यही आस पूरन करो तुम हमारी, मिटे कष्ट गौअन, छुटै खेद भारी।
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कृषि और ग्रामीण
अर्थव्यवस्था का दारोमदार गोवंश पर निर्भर है। जो लोग यन्त्रीकृत ‘फार्मो’
के और तथा-कथित वैज्ञानिक पद्धतियों के सपने देखते हैं, वे एक अवास्तविक
संसार में रहते हैं। हमारे लिये गोहत्या बंदी अनिवार्य है। मेरे विचार से
भारत की वर्तमान परिस्थिति में गोहत्या निषेध से बढ़कर कोई वैज्ञानिक तथा
विवेकपूर्ण कृत्य नहीं है।
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भारत में गोवंश के प्रति सैंकड़ों लोगों में आस्था है, उसकी उपेक्षा नही ंकी जानी चाहिये।
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सम्पूर्ण गोवंश परम उपकारी है। सबका कर्तव्य है कि तन-मन-धन लगाकर गोहत्या पर पूर्णरूप से बंदी लगवाये।
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गोवंश के तीन बड़े दुष्मनों को दूर भगाओ- ट्रेक्टर, बछड़े-बछियों को मारकर निकाला गया काॅफ लेदर और गोमांस के व्यापारी को।
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जब तक भारत की भूमि पर गोरक्त गिरेगा, तब तक देष सुख-षांति और धन-धान्य से वंचित रहेगा।
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कृषि-प्रधान भारत
में किसी भी उम्र के गाय-बैलों की हत्या कानून नहीं होनी चाहिये। गोहत्या
मातृहत्या है। संविधान में आवष्यक संषोधन किया जाकर सम्पूर्ण
गोवंश-हत्या-बंदी का केन्द्रीय कानून बने। उसमें कोई अपवाद न हो। एक भी
अपवाद रहा तो पूरा गोवंश कटेगा। गोवंश के मांस का निर्यात पूर्णतः बंद हो।
इसके लिये सत्याग्रह करना पड़े तो सत्याग्रह करो।
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सम्पूर्ण गोवंश-हत्या बंद करके राष्ट्र की उन्न्ाति के लिये ‘गौ’ को ‘राष्ट्र-प्राणी’ घोषित कर भारत-सरकार यषोभागी बने।
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आज गोवंश का हनन हो रहा है। गोरक्षण आज का सर्वोच्च राष्ट्रहित है।
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गोरक्षा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और गोहत्या से बढ़कर कोई पाप नहीं है।
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गोवध-बंदी-हेतु प्रत्येक व्यक्ति नित्य एक हजार भगवन-नामका जाप करें।
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‘गौ’ के बिना भारत-भूमि की सत्ता अक्षुण्ण नहीं रह सकती ।
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जब तक गोमाता का
रूधिर भूमि पर गिरता रहेगा, कोई भी धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक
आदि लौकिक-अलौकिक अनुष्ठान सफल नहीं होगें।
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एक गाय अपने जीवन
काल में पंचगव्यों द्वारा सात्विक एवं पौष्टिक आहार प्रत्यक्ष रूप से
हजारों मनुष्यों को प्रदान करती है जिससे मानव का षरीर स्वस्थ, मन पवित्र
और बुद्धि तीक्षण हो जाती है। परिणाम स्वरूप मानव जीवन में देवत्व का विकास
होने लगता है। देवत्व का विकास ही वास्तविक सर्वोच्य मानवीय चेतना का
विकास है। वेद अवतरण का उदेष्य मानव की सर्वोच्य चेतना को विकसित करना है
अतः गोसंरक्षण, गोसंवर्धन, गोपालन और गव्यों का विनियोग करना वैदिक सनातन
धर्मावलंबी एवं सम्पूर्ण मानव जाति का कर्तव्य है।
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गाय मनुष्य का
सर्वश्रेष्ठ हितैषी है। तूफान, ओला, अनावृष्टि या बाढ़ आवे और हमारी फसलों
को नष्ट करके हमारी आषाआंे पर पानी फेर दे, किन्तु फिर भी जो बचा रहेगा
उसीसे गाय हमारे लिये पौष्टिक और जीवन धारण करने वाला आहार तैयार कर देगी।
उन हजारों बच्चों के लिये तो गाय जीवन ही है, जो दूधरहित वर्तमान नारीत्वकी
रेती पर पड़े हुए हैं।
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हम उसकी सिधाई,
उसके सौन्दर्य तथा उसकी उपयोगिता के लिये उसे प्यार करते हैं। उसकी
कृतज्ञता में कभी कमी नहीं आयी। हमारे ऊपर दुर्भाग्य का हाथ तो होना ही
चाहिये, क्योंकि हम लोग सालों से अपने कर्तव्य से गिर गये हैं। हम जानते
हैं कि गाय हमारे एक मित्र के रूपमें है, जिसे कभी कोई अपराध नहीं हुआ। जो
हमारी पाई-पाई चुका देती है। और घर की देष की रक्षा करती है।
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कोई भी जाति या
देष गाय के बिना उच्च सभ्यता नहीं प्राप्त कर सका है। पृथ्वी पर सबसे अच्छा
पोषण गाय पैदा करती है। घास-चारा खाकर आरोग्य-षक्ति और पोषण देने वाले
दुग्धान्न्ा देती है। गाय अपने बच्चों ओर पालने वाले के घरके खाने भरके
लिये ही नहीं देती, वरं वह इतना दुग्धान्न्ा देती है कि वे लोग स्वयं खाकर
बेच भी सकें। गाय के बिना खेती स्थिर और समृद्ध नहीं हो सकती और न लोग सुखी
तथा स्वस्थ ही हो सकते हैं जहाँ गाय है और उसकी उचित देख-भाल होती है,
वहीं सभ्यता बढ़ती है, पृथ्वी उपजाऊ होती है, घर अच्छे बनते हैं और
मनुष्यों का ऋृण चुक जाता है।
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मैं गौकी प्रषंसा
करूँगा; किन्तु यों ही साधारण दृष्टि से नहीं, वरं इसलिये कि वह इसकी
अधिकारिणी है और ऐसा करना हमारा कर्तव्य है। मैं गाय को भागवत् सृष्टि के
चर प्राणी-समाज में एक ऊँचे आदरणीय स्थान पर खड़ी देखना चाहूँगा। गाय से
बढ़कर अन्य कोई भी पषु मनुष्य का मित्र नहीं है और न गाय जैसा कोई मधुर
स्वभाववाला है। अपने दीप्त, षान्त और ध्यानमग्न नेत्रों से संसार को देखने
वाली गाय के सौम्य रूप में सचमुच देवत्व भरा है। उसमें एक महानता और भव्यता
है, जो ग्रामदेवता के उपयुक्त है। उसमें षत-प्रतिषत मातृत्व है और उसका
मनुष्य-जाति से यही माता का सम्बन्ध है।
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मैं यह नहीं
मानता कि गाय एक उदास, अबोध और व्यक्तित्वषून्य प्राणी है; किन्तु ऐसा न
मानने वाले किसी संषययुक्त मनुष्य को यह मनाना भी मेरे लिये कठिन है। जब तक
मनुष्य अपने पषु-मित्रों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार न करेगा तब तक
वह उनकी अत्यन्त प्रिय तथा मनोरम विषेषताओं के विषय में सदा अँधेरे में ही
रहेगा।
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‘गाय हमारे दुग्ध-भुवन की देवी है। यह भूखों को खिलाती है, नंगों को पहनाती है और बीमारों को अच्छा करती है।
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आज हमारा देष
स्वतन्त्र हो चुका है और हम भी स्वतन्त्र कहलाते हैं, फिर भी हमारे पवित्र
भारत में गोवंश की रक्षा न होकर उसका उत्तरोत्तर ह्नास होता जा रहा है।
हजारों-लाखों की संख्या में निरपराध गौएँ प्रतिदिन इसी स्वतन्त्र भारत में
मारी जाती हैं। जब से भारत भूमि में गोसंहार होने लगा है, तभी से हम भारतीय
नाना प्रकार के रोग-षोकादि विविध कष्टोें से पीडि़त हो रहे हैं। हमें एक
समय पर वर्षां द्वारा न जल प्राप्त होता है और न पृथ्वी माता द्वारा
उचितरूप में अन्न ही प्राप्त होता है।
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गोधन भारतीय
संस्कृति और सभ्यता का अन्यतम रक्षक है। अतः गो जाति का ह्रास हिंदूजाति और
हिंदू धर्म का ह्रास है। इसलिये सभी दृष्टि से गोवंश की रक्षा परमावष्यक
है। हमें चाहिये, हम संगठितरूप से समस्त भारतवर्ष में गोरक्षार्थ रचनात्मक
दृढ़ आन्दोलन उपस्थित करें और प्रान्तीय तथा केन्द्रीय सरकार से भी
गोरक्षार्थ प्रार्थना करें।
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वर्तमान
पिंजरापोल, गोषालाओं का सुधार करना चाहिये और जो पिंजरापोल, गोषाला दयाभाव
से केवल बूढ़ी, अपंग गायों के लिये खोले गये हैं, उन्हें डेरी फार्म न
बनाकर उस काम के लिये रहने देना चाहिये।
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गायों का
गर्भाधान, विषेष दूध देने वाली गौ के पुत्र, बलवान् तथा श्रेष्ठ जाति के
देशी साँड़ से ही करना। अच्छी नस्ल के देशी साँड़ों का संवर्धन तथा विस्तार
करना, बूढ़े साँड़ों से तथा जर्सी साँड़ों से गर्भाधान का काम कतई न लिया
जाना।
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कसाईखानों मंे
मारी हुई गायों के चमड़े इत्यादि से बनी हुई वस्तुएँ- जुते, बटुए,
कमरपट्टे, बिस्तरबंद, घड़ी के फीते, चष्मे के घर, पेटियाँ, हैंडबेग आदि का
व्यवहार न करने की षपथ करना-कराना चाहिये।
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गोवध में सहायक चमड़े, मांस आदि का व्यापार, जिससे गोवध होता है -बिलकुल न करना।
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ट्रेक्टरों का
व्यवहार न करके या कम से कम करके, हल जोतने का काम बैलों से ही लेना तथा
रासायनिक खाद का उपयोग न करके गोबर, गोमूत्र की खाद से ही काम लेना चाहिये
और इनकी उपयोगिता का प्रतिपादन करना चाहिये।
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जिनका
भगवत्प्रार्थना में विश्वास है, उनको चाहिये कि वे श्रद्धापूर्वक नित्य
भगवान से प्रार्थना किया करें। यदि प्रार्थना सत्य होगी और हृदय से होगी तो
ऐसे संयोग अपने-आप बनेंगे जिनसे गोरक्षा का मार्ग सुगम हो जायगा।
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जो परात्पर
ब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण बड़े-बड़े महान् योगियों के समाधि लगाने पर भी
ध्यान में नहीं आते, वे ही साक्षात् परात्पर ब्रह्म श्रीकृष्ण पूज्या
गोमाता के पीछे-पीछे नंगे पाँवों जंगलोंमें, वनोंमें अपने हाथ में वंषी
लिये घूम रहे हंै, इससे बढ़कर आश्चर्य की बात भला और क्या होगी? इससे बढ़कर
पूज्या गौमाता की अद्भुत महत्ता का जीता जागता ज्वलन्त उदाहरण और
प्रत्यक्ष प्रमाण भला और क्या हो सकता है?
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गोमाता विशुद्ध
सत्त्वमयी भगवती पृथ्वी की प्रतिमूर्ति हैं, समग्र धर्म, यज्ञ, सत्कर्म और
विष्वसंचालन का आधार है और सीधेपन तथा वाल्सल्य की तो सीमा ही है। इसके
दर्षन, स्पर्ष, वन्दन, अभिनन्दन आदि से सारे पाप-तापों का षमन होकर परम
कल्याण एवं सुख, शान्ति, आनन्द का संचार होता है तथा सब प्रकार के मंगलमय
अभ्युदय का आगमन होता है, यह सब का हृदय जानता है। इसलिये यह निरन्तर
पूजनीय, वन्दनीय एवं अभिनन्दनीय है।
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गौओं की उपेक्षा
से आज पृथ्वी नरक बन गयी है। पर पूरा विश्वास कीजिये इन देवता-देवियों और
उत्सवों की जगह सच्ची महामहिमामयी देवी गोमाता की सेवा से साक्षात् स्वर्ग
या गोलोक ही इस भूमण्डल पर उतर जायेगा तथा सच्चे सुख, शान्ति, आनन्द और
कल्याण की मधुमयी सुधा धारा निरन्तर प्रवाहित होने लगेगी। सब लोगों के
विचार बदल जायँगे। परस्पर सौहार्द का वातावरण उपस्थित होकर प्रतिक्षण दिव्य
ज्ञान-विज्ञान एवं भक्तियोग आदि के चमत्कारपूर्ण प्रचार-प्रसार सर्वत्र
दीखने लगेंगे।
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गाय का इतना
महत्वपूर्ण स्थान इसी बात से अवगत होता है कि समस्त प्राणियों को धारण करने
के लिये पृथ्वी गोरूप ही धारण करती है। जब-जब पृथ्वी पर असुरों का भार
बढ़ता है, तब-तब वह देवताओं के साथ श्रीमन्नारायणकी शरणमें गोरूप ही धारण
करके जाती है।
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देश के धर्म और
संस्कृति के संरक्षकों, मनीशियों एवं विशेषकर गोविन्द के भक्तों को विचार
करके ऐसा मार्ग प्रशस्त करना चाहिये, ऐसी शुभ योजना बनाकर जनता के समाने
रखनी चाहिये, जिससे गोसेवा के लिये उत्साह बढ़े और उसके द्वारा धर्म और
अर्थ दोनांे पुरुषार्थों की सिद्धि सहज में ही सुलभ हो सके, तभी गोविन्द की
गाय की सेवा भगवान की प्रसन्नता की हेतु बन सकेगी।
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ध्यान रहे,
विदेशी दुर्नीति, सरकार की तुष्टीकरण की रीति और व्यापारियों की
अर्थलोलुपता से भरी हुई दृष्टि- इन तीनों हेतुओं से भारत में गोहत्या हो
रही है। गो, द्विज, सुर, संत और भूदेवी का हृदय भारत पर संकट की स्थिति जिन
राजनेताआंे के द्वारा उत्पन्न की जा रही है, उन्हें सावधान रहना चहिये,
इन्हीं की रक्षाके लिये भगवान अवतरित होते हैं, ऐसा ध्यान रखना चाहिये।
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गाय विश्व की
माता है- ‘गावो विश्वस्य मातरः।’ सूर्य, वरुण, वायु आदि देवताओं को यज्ञ,
होम में दी हुई आहुति से जो खुराक, पुष्टि मिलती है, वह गाय के घी से ही
मिलती है। होम में गाय के घी की ही आहुति दी जाती है, जिससे सूर्य की
किरणें पुष्ट होती हैं। किरणें पुष्ट होने से वर्षा होती है और वर्षा से
सभी प्रकार के अन्न, पौधे, घास आदि पैदा होते हैं, जिनसे सम्पूर्ण
स्थावर-जंगम, चर-अचर प्राणियों का भरण-पोषण होता है।
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गाय की रक्षा से मनुष्य, देवता, भूत-प्रेत, यक्ष-राक्षस, पशु-पक्षी, वृक्ष-घास आदि सबकी रक्षा होती है।
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जैसे भगवान् की
सेवा करने से त्रिलोकी की सेवा होती है, ऐसे ही निष्काम भाव से गाय की सेवा
करने से विश्वमात्र की सेवा होती है; क्योंकि गाय विश्व की माता है। गाय
की सेवा से लौकिक और पारलौकिक- दोनों तरह के लाभ होते हैं। गाय की सेवासे
अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष- ये चारों पुरुषार्थ सिद्ध होते हैं।
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रुपयों से
वस्तुएँ श्रेष्ठ हैं, वस्तुओं से पशु श्रेष्ठ हैं, पशुओं से मनुष्य श्रेष्ठ
हैं, मनुष्यों में भी विवेक श्रेष्ठ है और विवेक से भी सत-तत्त्व
(परमात्मतत्त्व) श्रेष्ठ है और परंतु आज सत्-तत्त्व की उपेक्षा हो रही है,
तिरस्कार हो रहा है और असत्-वस्तु रुपयों को बड़ा महत्व दिया जा रहा है।
रुपयों के लिये अमूल्य गोधन को नष्ट किया जा रहा है। गायों से रुपये पैदा
किये जा सकते हैं, पर रुपयों से गायें पैदा नहीं की जा सकते हैं, गायों की
परम्परा तो गायों से ही चलती है। जब गायें नहीं रहेंगी, तब रुपयों से क्या
होगा? उल्टा देश निर्बल और पराधीन हो जायेगा। रुपये तो गायों के जीवित रहने
से ही पैदा होंगे। गायों को मारकर रुपये पैदा करना बुद्धिमानी नहीं है।
बुद्धिमानी तो इसी में है कि गायों की वृद्धि की जाय। गायों की वृद्धि होने
से दूध, घी आदि की वृद्धि होगी, जिनसे मनुष्यों का जीवन चलेगा, उनकी
बुद्धि बढ़ने से विवेक को बल मिलेगा, जिसे सत-तत्त्व की प्राप्ति होगी।
सत-तत्त्व की प्राप्ति होने पर पूर्णता हो जायेगी अर्थात् मनुष्य कृतकृत्य,
ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य हो जायेगा।
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1. बूचड़खानों को
हर तरह के उचित उपाय करके बंद करवाना चाहिये। 2. गौओं की उत्तम वंश-वृद्धि
के उपाय करने चाहिये। 3. गोओं के लिये पर्याप्त चारे-दाने की व्यवस्था
होनी चाहिये। 4. घास के लहलहाते मैदान गौओं के लिये सर्वत्र खुले होने
चाहिये। 5. प्रत्येक सद्गृहस्थ को अपने घर में गौ अवश्य रखनी चाहिये और
उसका प्रेम के साथ पालन करना चाहिये। 6. कोई भी हानिकारक वस्तु गौओं को कभी
नहीं खिलानी चाहिये। 7. बैलों के काम और चारे-दाने पर विशेष ध्यान रखना
चाहिये। 8. गौओं की तंदुरुस्ती और स्वच्छतापर विशेष ध्यान देना चाहिये। 9.
उत्सवों पर गौओं का विशेष पूजन होना चाहिये। 10. गो जाति के लिये हृदय में
अगाध प्रेम होना चाहिये।
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प्राणी जब यह जान
जायेगा कि गाय धरती के लिये वरदान है तो उसकी रक्षामें वह स्वयं तत्पर
होगा। किसी के उपदेश, आदेश की आवश्यकता नहीं होगी।
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गौ हमारी सभ्यता
और संस्कृति की मेरुदण्ड है। गौविहीन भारतीय संस्कृति की तो कल्पना ही नहीं
की जा सकती। गौ हमारी राष्ट्र-लक्ष्मी है। वह हमारी समृद्धि की आधारशिला
है। गौने हमें जीवनदायिनी शक्ति दी है, हमें आरोग्य, आनन्द और शान्ति
प्रदान की है। गौ हमारी सारी आर्थिक योजनाओं और सारी आध्यात्मिक शक्तियों
की स्रोत है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि गौ तो हमारी कल्याणकारिणि माता
है।
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यदि हम चाहते हैं
कि हमारी भारत-भू अन्नपूर्णा बनी रहे, यदि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे
तेजस्वी, ओजस्वी, वर्चस्वी और प्राणवान बने रहें तो हमें गायों का अच्छी
तरह से पालना करना होगा, उनकी रक्षा करनी होगी, और सेवा करनी होगी।
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आज विश्व में
अमेरिका एवं यूरोप समृद्ध माने जाते हैं, ये दोनों राष्ट्र गौ की सेवा
पूर्णरूप में करते हुए गौ के ऋणी एवं कृतज्ञ हैं। किंतु इस दिशा में गौ और
गोविन्द के प्रेमी हमारे भारत की स्थिति गोसेवा से विरत हो जाने से परम
दयनीय हो गयी है।
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ट आज
पर्यावरण-प्रदुषण की बात बड़े जोर-शोर से चल रही है, पर इन महानुभावों ने
इस पर कभी विचार ही नहीं किया कि विषुद्ध पर्यावरण के मूल मंे गौ का ही
अस्तित्व है। गौ घर-घर रहेगी तो उसके गोमूत्र -गोबर मात्र से ही समस्त
राष्ट्र का प्रदूषण दूर किया जा सकता है। इससे उत्तम साधन समस्त राष्ट्र के
प्रदूषण को दूर करने का और क्या हो सकता है?
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पशुत्व की जड़ता
से मातृत्व की चोटी तक गाय को पहुँचाने का श्रेय समाज अथवा शास्त्रों को
नहीं अपितु इस भोली-भाली मूर्ति में पायी जाने वाली अद्भुत गुणसम्पदा को
है। साहित्य एवं व्यवहार में मनुष्य की सज्जनता की उपमा गाय की नैसर्गिक
सरलता से दिया जाना एक सामान्य बात है। यह पशु नहीं परोपकार का प्रतिमान
है, मानदण्ड है।
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गौ सर्वार्थसिद्धि का एक सम्पूर्ण साधन तथा भारतीय संस्कृति का मूलाधार है, भारतीय दर्षन का आध्यात्मिक मूल है।
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विश्व में कलियुग
के प्रभाव से प्रायः सभी वस्तुओं का प्रभाव लुप्त-सा होता जा रहा है,
परंतु गौ माता एवं गोसेवा का प्रभाव वर्तमान समय में भी लुप्त नहीं हो सका
है। यदि भक्तिपूर्वक गो-सेवा की जाय तो वह अपने भक्त की सभी इच्छाएँ पूर्ण
करने में सक्षम है।
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गोसेवा से
श्रेष्ठतम महान पुत्र की प्राप्ति होती है। कुलगुरु-वसिष्ठ द्वारा महाराज
दिलीप को सुरभि नन्दिनी की भक्तियुक्त सेवा का आदेश हुआ। गो-सेवा के परिणाम
स्वरूप ही राजा दिलीप के पुत्र रघु हुए। महाराज ऋतम्भर ने मुनि जाबालि के
आदेशानुसार भक्ति-भावना से गो-सेवा की, परिणास्वरूप सत्यवान नामक पुत्र की
प्राप्ति हुई।
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भारत वर्ष के उज्जवल भविष्य का पुनर्निर्माण गोसेवा, गोवंश की रक्षा एवं गोमाता के आशीर्वाद पर ही आधारित है।
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गोसेवा
भगवत्प्राप्ति के अन्यतम साधनों में से एक है। इससे भगवान शीघ्र प्रसन्न हो
जाते है। यह बड़ी ही विचित्र बात है कि भगवान जहाँ मनुष्यों के इष्टदेव
हैं, वहीं गौ उनकी भी इष्टदेवी है।
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गोसेवा से गोसेवक
निष्पाप हो जाता है। गोखुर से उड़ती हुई धूलिसे आच्छादित आकाश पृथ्वी को
ऊसर होने से बचाता है। गोपालव्रत स्थार्थ नहीं वरन परमार्थ है।
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भगवती सुरभि के
अंश से उत्पन्न गाय को पशु कहने वालों को पाप घेरता है। इनमें देवत्व और
मातृत्व का दर्शन करते हुए श्रद्धा समर्पित करनी चाहिये।
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टगौ के सेवक भी
जिस भूमि पर निवास करते हैं। वह भूमि भी समस्त तीर्थों द्वारा अभिनन्दित
होती है। गोमाता की सेवा से, पंचगव्य-प्राशन से तथा चरणोदकमार्जन से तीर्थ
स्नान का फल प्राप्त होता है। गाय जहाँ पर पानी पीती है अथवा जिस जल से पार
होती है वहाँ सरस्वतीजी विद्यमान होती हैं।
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गोसेवा बड़ी से
बड़ी दुस्तर विपत्तियों से रक्षा करती है। ज्योतिषशास्त्र में ग्रहों की
विपरीत अवस्था में गोसेवा ही प्रमुख उपाय बताया गया है।
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गौ भारत की
राष्ट्रीय समृद्धि और सम्पदा की विशिष्ट प्रतीक रही है। तपोवन -संस्कृति की
यह महत्वपूर्ण अंग थी। गृहस्थों की ही नहीं आश्रम में रहने वाले ऋषियों की
समृद्धि का परिचय भी उनके यहाँ रहने वाली गौओं की संख्या से मिलता है।
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अतीव्र गति से
नामजपपूर्वक ही गोसेवा और गोरक्षार्थ प्रयास करना चाहिये। साथ ही गौ को पषु
न समझकर सर्वदेवमयी धेनु-साक्षात् भगवान का स्वरूप मानकर उसकी
सेवा-शुश्रुषा, पूजा करनी चाहिये।
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इसमें संदेह नहीं
कि गोहत्या-बंदी के साथ-साथ गायों की दुग्धोत्पादन-क्षमता बढ़ाने,
नस्ल-सुधार एवं गोमय और गोमूत्र के समुचित उपयोगकी व्यवस्था के लिये
गोसंवर्धन का सबल प्रयास अपेक्षित है।
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अगोमाता को कभी
भूलकर भी भैंस, बकरी आदि अन्य पशुओं की भाँति साधारण पशु नहीं मानना
चाहिये। वह सामान्य पशु नहीं है। उसके शरीर में 33 करोड़ देवी-देवताओं का
वास है। गोमाता परब्रह्म श्रीकृष्ण की परमाराध्या है और गोमाता भवसागर से
पार लगाने वाली साक्षात देवी है, यह मानना चाहिये।
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मनुष्य की
सम्पूर्ण क्रियाओं का मूल मन है और गौ मनकी शुद्धि का मूल हेतु है।
मानव-जीवन से पशु-जगत का यों भी घनिष्ठ सम्बन्ध है, फिर दिव्य पशु तो
मानव-जीवन की आधारशिला है। वेद में सामान्य और दिव्य पशुओं का पर्याप्त
विवेचन हुआ है। गौ और गौ की संतान दोनों ही दिव्य पशु हैं।
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इस गाय की रक्षा
करना ईष्वर की सारी मूक सृष्टि की रक्षा करना है। जिस अज्ञात ऋषि या दृष्टा
ने गोपूजा चलायी, उसने गाय से सिर्फ शुरुआत की, इसके सिवा और कोई ध्येय हो
नहीं सकता है। इस पशुसृष्टि की फरियाद मूक होने से और भी प्रभावशाली है।
गोरक्षा हिंदू-धर्म की दुनिया को दी हुई एक कीमती भेंट है।
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अपृथ्वी पर
मूर्तिमन्त गौ जिस परम शक्ति की प्रतीकस्वरूपा है, उसकी व्याख्या वेदों में
भी साध्य नहीं है। गौ विश्व की माता है, यह पार्थिव जगत् में जितना सत्य
है उससे भी अधिक इसका महत्व आध्यात्मिक दृष्टि से है।
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गौ समस्त
प्राणियों की परम श्रेष्ठ शरण है, यह सम्पूर्ण विश्व की माता है-
‘सर्वेषामेव भूतानां गावः शरणमुत्तमम्’,‘गावो विश्वस्य मातरः।’ यह
निखिलागमनिगमप्रतिपाद्य सर्ववन्दनीया एवं अमितशक्तिप्रदायिनी दिव्यस्वरूपा
है। कोटि-कोटि देवताओं की दिव्य अधिष्ठान है। इसकी पूजा समस्त देवताओं की
पूजा है। इसका निरादर समस्त देवताओं का निरादर है।
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गोमाता ईश्वर का
प्रत्यक्ष स्वरूप है। इसका प्रमाण है गोमाता का स्वाभाविक निष्काम भाव,
उसके भोजन की सात्त्विकता तथा सभी के प्रति समदृष्टि।
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गो-दुग्ध अमृत
है, गंगा-जल पवित्र एवं तारक है, गीता निष्कामकर्मद्वारा ब्राह्मी स्थिति
तक पहुँचा देती है और गायत्री-मन्त्र हमारी बुद्धि को पवित्र एवं परिष्कृत
करता है।
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अगाय दरवाजे की
शोभा ही नहीं, वह श्रीसम्पदा है, लक्ष्मी है, धरती की भाँति पूज्या है। जिस
वात्सल्य-रस की इतनी महिमा और चर्चा है, वह गाय का अपने बछड़े के प्रति
अहैतु स्नेह को देखकर ही है। सचमुच गाय हमारी माँ है।
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गौ और पृथ्वी
एक-दूसरे के पूरक हैं। पृथ्वी जीवों का आधार है और गौ जीवों का जीवनाधार
है। इस प्रकार गौ और पृथ्वी का तादात्म्य है। गौ के गोबर तथा मूत्र पृथ्वी
की उर्वराशक्ति की अभिवृद्धि करते हैं और यह अभिवृद्धि भी स्वाभाविक होती
है। इसमें स्थायित्व एवं निरन्तरता होती है। अतः यह पृथ्वी को अत्यन्त
प्रिय होता है। पुराणों तथा शास्त्रों में गौ को पृथ्वी का जीवन्त रूप माना
गया है।
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हमें सर्वात्मना
सर्वभावेन निरन्तर गौ का सानिध्य एवं गोसेवाको अपनी दिनचर्या का अंग बनाना
चाहिये क्योंकि अन्य आसुरी सम्पदाएँ तो हमें अशान्त ही कर सकती हैं। केवल
गो ही हमें शान्त और सुखमय करती है।
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गौ एक अमूल्य
स्वर्गीय ज्योति है, जिसका निर्माण भगवान ने मनुष्यों के कल्याणार्थ
आशीर्वाद रूप में पृथ्वीलोक में किया है। अतः इस पृथ्वी मंे गोमाता
मनुष्यों के लिये भगवान का प्रसाद है। भगवान के प्रसादस्वरूप अमृतरूपी
गोदुग्ध का पान कर मानवगण ही नहीं, किंतु देवगण भी तृप्त और संतुष्ट होते
हैं। इसीलिये गोदुग्ध को ‘अमृत’ कहा जाता है। यह अमृतमय गोदुग्ध देवताओं के
लिये भोज्य-पदार्थ कहा गया है। अतः समस्त देवगण गोमाता के अमृतरूपी
गोदुग्ध के पान करने के लिये गोमाता के शरीर में सर्वदा निवास करते हैं।
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सब गृहस्थों को
भोग (योग्य पदार्थ) देने वाले और परोसने वाले गौ-बैल ही हैं। इसलिये
माता-पिता के समान उन्हंे पूज्य माने और उनका सत्कार करें।
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गोग्रास के
निमित्त आये हुए पैसों में से एक पाई भी कभी भूल से भी अपने काम में मत
लगाओ जितना बने अपनी ओर से गोहित में तन-मन-धन लगाते रहो। पर गौ के हक का
द्रव्य और स्वत्व कभी भूल कर भी मत लो। इसी में भलाई है। गोमाता के नामपर
पैसा खाने वालों को नरक का कीड़ा बनना पड़ता है। गौ के हक का द्रव्य तो
साक्षात अग्नि के अंगारे हैं। क्या अंगारों को कोई पचा सकेगा।
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